गजल-रोटियां चार इज्ज़त की

 

।। गज़ल ।।

रोटियां चार इज्ज़त की


न झुकता हूँ न झुकाना चाहता हूँ

हवा के सामने आंखे मिलाना चाहता हूँ


मुक़द्दर पर भरोसा बहुत कम यारो रहा

रोटियां चार इज्ज़त की कमाना चाहता हूँ


जमाने को समझ पाना यूँ आसां है नहीं

जमाने से जमा कीचड़ उठाना चाहता हूँ


मज़हबी लूट भूखे भेड़ियों की क्या कहें

लूटते साथ मिल करके बताना चाहता हूँ


मंदिरों से घंटियां तक चुरा लेते हैं लोग

गोलकें साफ़ कर जाते जगाना चाहता हूँ


यहाँ ऊंचा नहीं कोई यहॉं नीचा नहीं कोई

फासले हम बनाए ख़ुद मिटाना चाहता हूँ


न रहजनी से खफ़ा न रहबरी से इश्क़

गले इसको गले उसको लगाना चाहता हूँ


ज़मीर जिंदा रहे अमीर रहूँ ना रहूँ

उम्र भर भर भर के लुटाना चाहता हूँ


मज़हबी लोग करते आ रहे धंधे मज़हबी

जमीं कदमों के नीचे की बचाना चाहता हूँ

 

लूटने में लगे दिन रात मिलकर आड़ ले

उठो बोलो चलो आओ बुलाना चाहता हूँ


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा “शिव”

स्वतंत्र लेखक

२८.०९.२०२४ ११.००पूर्वाह्न(४२९)


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