कविता-तब और अब

 

।। कविता ।।

तब और अब

फूस के छप्पर कच्ची भीतें,
भीतों में आले,आलों में डिब्बी।।
डिब्बी में मिट्टी का तेल, 
तेल में डूबी बाती।।
बाती करती दीप्त प्रकाशित घर,
मुस्कराती   जाती।।


ना कोई कृत्रिम रंग ढंग,
ना कोई नकली बाना था।।
चूल्हे की रोटी साग भात,
सादा सुपाच्य सा खाना था।।

ना भूख बहुत ज्यादा की थी,
ना कोई दिखाबा, कार, भार।।
सीमित संसाधन थे अवश्य,
सुखमय रहते, थे मिलनसार।।

रेडियो माध्यम खबरों का,
गाने मल्हार और फाग राग।।
टीवी काली सफेद वाली,
एंटीना  कर  जाता कमाल।।

जैसे ही अंधड़ हवा चली,
टीवी के दृश्य बदल जाते।।
टेढ़े   मेढे   आड़े   तिरछे,
पात्रों के भाव बदल जाते।।

कतिकी धान दिवारी पर लेके,
हम  भड़भूजे  ढिंग  जाते  थे।।
ले  जाते  थे  आधी  बोरी,
उस  ओर से  दो भर लाते थे।।

चौतरा, नांद और भीतों को,
लीपतीं बड़ी भावी और माँ।।
गैया  के   गोबर  मिट्टी  से,
लीपती थीं आंगन भावी माँ।।

चूल्हे तक चप्पल थीं निषेध,
भोजन बनता अस्नान बाद।।
सबसे पहले गऊ का ग्रास, 
फिर देवभोग भोजन प्रसाद।।

हम अब आधुनिक बने फिरते,
ना   संस्कार   ना   मर्यादा।।
बस एक भूख बढ़ती जाती,
पा जाऊं धन ज्यादा ज्यादा।।

उन्नत दिखने का नशा चढ़ा,
भोजन  बासा कूसा  खाते।।
मटकाती कमर उघार बदन,
हम क्या से क्या होते जाते।।

सर्वाधिकार सुरक्षित
शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक
१५.१०.२०२४ १२.१९ अपराह्न(४३३)
(१९९० से २००० का दौर)


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