कुंडलियां
✍️गुदगुदी ०७✍️
शक्ती बल संयुक्त में,विघटन करै अशक्त।
लदा बृक्ष फल फूल सूँ,सदा रहे उपयुक्त।।
सदा रहे उपयुक्त, विवेकी धीर वही नर।
रहै सदा समभाव,चलै सधकें डगडग भर।
विघटन देता रोग शोक, हरता मेधा बल।
है शक्ती संयुक्त रूप,कहता कवि निश्छल।।
अलगौझा करकें दिखे,दुःखी मुरारी लाल।
दर्पण के सम्मुख डरहिं,करै न खड़े सवाल।।
करै न खड़े सवाल, ढूढ़ते हल प्रश्नों के।
कैसे भी बच जांय, सवालों दुःस्वप्नों से।।
धन आता जाता रहे, प्रीति न आवै फेर।
यदी प्रीति दूषित रहहि,तौ कूढ़े सम ढ़ेर।।
लालच बुरी बलाय है,जानत हैं सब कोय।
करते रहते प्रीति पर,स्वजन सहोदर खोय।।
स्वजन सहोदर खोय,वक्त की चाल निराली।
करहि चोट जब घोर,मिलहि ना रोटी थाली।।
वक्त गया फिर ना मिलै,वक्त लौट के मीत।
वक्त रहे कछु चल कदम,वक्त रह्यो है बीत।।
घृणा मुदित प्रसन्न अति,रंग ढंग कूँ देख।
आपस में लड़ मर रहे,सेंक रोटियां सेंक।।
सेंक रोटियां सेंक,भरी रखि अपनी थारी
मरें गिरें चाहे मिटें, हँसत घृणा दए तारी।।
समय गयौ यदि हाथ सें,फेरि न आवै हाथ।
समय रहे पर समझ ले,बात पते की बात।।
स्वजन परिजन हारकें,कैसा सुख सम्मान।
दौलत से मिलता नहीं,नित आनंद वितान।।
नित आनंद वितान, नींद धन से ना आती।।
ज्यादा बढ़ता लोभ,बुद्धि मति खाती जाती।
कम पाकर खाकर रहे, सदा जो नर प्रसन्न।
उसका जीवन श्रेष्ठतम, धन्य धन्य वे धन्य।।
सर्वाधिकार सुरक्षित
शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक
१२.११.२०२४ ११.४५ पूर्वाह्न(४३६)