कविता
संवादहीनता !!
घर घर प्रति घर रूप नये मिलते हैं,
दग्ध ह्रदय मन पीड़ा भर चलते हैं।।
दौलत का अंबार बहुत से नौकर चाकर,
होते रहते नतमस्तक नितनित आ आकर।।
संवादहीनता की खाई नित बढ़ती जाती,
रिश्तों से मीठा रस ले उड़ती मुस्कराती।।
मिलना जुलना हर्षित हो मुस्कराते रहना,
रहना सदा समान भाव जल जैसे बहना।।
दीवारें ना सिसकें और ना माँ भी सिसके,
रखना मन प्रसन्न चलें सबसे मिल जुलके।।
भीतर से अंधे मत होना अश्रु न जो लखि पाएं,
इतने मत गिर जाना मानव पीड़ा दे मुस्कराएं।।
इतना रखना ध्यान समय आता जाता है,
कोई रहता मुग्ध स्वयं में कोई बच पाता है।।
हैं कुछ शेष विशेष छोड़ जाते पग मग में,
शब्द करें साम्राज्य काल तक अंतर्मन में।।
जीते जी रहे दूर निकटता नहीं बढ़ायी,
गया वक्त सब बीत याद अपनों की आयी।।
अंतिम वक्त रुदन क्रंदन से क्या होगा,
मिले न तब भर अंक मिलन से क्या होगा।।
खूब बंटे धन खेत भवन मन ना बंट जाएं,
मिलें ह्रदय प्रसन्न प्रेमयुत ह्रदय लगाएं।।
पद कद दौलत शान है अस्थिर मान मनुज,
अपने अंदर झांक झांक पहचान मनुज।।
सर्वाधिकार सुरक्षित
शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक
१०.०१.२०२५ ०९.१३पूर्वाह्न(४४७)