कविता
✍️मेरा बचपन✍️
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छप्पर टटिया खटिया आंगन,
बम्बा, नहर, कुऐ का पानी।।
दूध की रोटी मट्ठा लोनी,
मीठे चावल घी गुड़ धानी।।
किल्ली डंडा खेल कबड्डी,
मिल कर करते कारस्तानी।।
हूका कूका पदम् पदाई,
भजा भजा मंगवाते पानी।।
बचपन बचपन मेरा बचपन,
कही कहानी, सुनी कहानी।।
दूध की रोटी मट्ठा लोनी,
मीठे चावल घी गुड़ धानी।।
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भाई बहन बुआ भावी माँ,
ताऊ चाचा चाची ताई।।
द्वार चौतरा लीपा पोती,
पूड़ी गुजिया खीर मलाई।।
गैया बछिया महिषी पढ़िया,
अमिया जामुन बेर निमौरी।।
फागुन होरी हँसी ठिठोली,
गोजा पापर खीर कचौरी।।
पुलिया दगरा मूँज गूंदरा,
कूल में बहता मीठा पानी।।
दूध की रोटी मट्ठा लोनी,
मीठे चावल घी गुड़ धानी।।
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होली तीज दिवाली राखी,
ताल पोखरा नदी नबारे।।
गॉव के बूढ़े बाबा अम्मा,
देखभाल करते मिल सारे।।
झोला कॉपी और किताबें,
चप्पल कपड़े भैया बारे।।
पहन ठसक से चलते थे हम,
क्या दिन थे कितने थे प्यारे।।
बड़े हुए जब खड़े हुए कुछ,
चले अकिल्ले की मनमानी।।
दूध की रोटी मट्ठा लोनी,
मीठे चावल घी गुड़ धानी।।
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एकाकी मन एकाकीपन,
खलता खाली खाली आंगन।।
घुटते मन मन रहते बेमन,
ना वह होली ना वह सावन।।
अर्थ अर्थ का अर्थ न समझे,
लोभ दंभ बढ़ता निज निज हित।।
पद दौलत शौहरत के कारण,
खोते जाते नित नित नित नित।।
था दिल बड़ा बचपने में शिव,
अब कंगाल ना दिल ना पानी।।
दूध की रोटी मट्ठा लोनी,
मीठे चावल घी गुड़ धानी।।
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बचपन बचपन मेरा बचपन,
कही कहानी, सुनी कहानी।।
दूध की रोटी मट्ठा लोनी,
मीठे चावल घी गुड़ धानी।।
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सर्वाधिकार सुरक्षित
शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक
०६.०३.२०२५ ०९.३९अपराह्न(४५२)