कविता
तब !! तुम्हें ??
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तब !!
तुम्हें धिक्कारूं
दुलारूं...
या फिर दुत्कारूं ??
यदी तुम्हें नहीं दिखता
अपने आसपास कूड़े का अंबार
कराह, आह, जिल्लत, लाचारी
कर्ज की मार,कर्ज का भार …
शांत परंतु असह्य हाहाकार
भृष्टाचार, भुखमरी, बेकारी
लूट का नंगा नृत्य, दुष्कृत्य
तब !!
तुम्हें धिक्कारूं
दुलारूं…
या फिर दुत्कारूं ??
तुम्हें यदि नहीं दिखता
समाज में पनपता अंतर्विरोध
वैमनस्यता बिखराव और द्वंद
पीठ पीछे धँसता छुरा
और छुरा छुपाए हाथ
घर के एक कोने में
धधकती,भड़कती आग
अधीर और कंपित गात
तब !!
तुम्हें धिक्कारूं
दुलारूं…
या फिर दुत्कारूं ??
किसी रुग्ण की कराह,दर्द, विवशता
मोटा मोटा दम निकालता बिल
थाने चौकी दफ्तर बाबुओं के करतब
और विल में बैठे संरक्षित भृष्ट चूहे
कुतरते हुए व्यवस्था और जिस्म !!
कुछ तलवे चाटते मुलाज़िम
भृष्ट जनसेवक,नौकरशाह,पत्तलकार
जिनके हाथ कमान है….
सभ्य,भयमुक्त,शिक्षित,समृद्ध
अनुशासित समाज गढ़ने की
यदी वे ही पथभृष्ट होने लगें
तब !!
तुम्हें धिक्कारूं
दुलारूं…
या फिर दुत्कारूं ??
रिश्तों में पनपती विषवेल
विष भरे बयान दुराव,बिखराव
और आत्ममुग्धता का बढ़ता बाजार
राजा और प्रजा के मध्य पनपता…
अविश्वास,असंतोष
आक्रोश और रोष
वर्तमान पीढ़ी और उसके हावभाव
विधालय धर्मालय बनते धन उगाही केंद्र
अपने सिद्धांतों, नियमों, नीतियों
के विपरीत चलता हुआ
मुस्कराता हुआ मानव मन
लूट झूट चारित्रिक पतन
यदी तुम्हें नहीं दिखता…
तब !!
तुम्हें धिक्कारूं
दुलारूं…
या फिर दुत्कारूं ??
सर्वाधिकार सुरक्षित
शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक
२४.०३ २०२५ ११.४९ पूर्वाह्न(४५४)