कविता
बिकता है आजकल…
सच बोल दूँ ??
या………. ,,
चुप रहूँ ……??
बदली बयार है…
दिनकर के सामने
तम……… .।।
भर रहा हुंकार है..
हर ओर लूट झूठ का,
साम्राज्य वाद है।।
गुम हो रही मनुष्यता,
जय जातिवाद है।।
जूठन भी चाटते हैं,
बड़े भाव चाव से ।।
कितने गिरेंगे और,
अपने स्वभाव से।।
किस ओर जा रहे हैं,
कैसा खुमार है।।
दिनकर के सामने,
तम……… .।।
भर रहा हुंकार है..
बिकता है आजकल,
खुले आम आदमी।।
होता ही जा रहा स्वयं,
नीलाम आदमी।।
रिश्वत दलाली भूख,
बढ़ती ही जा रही।।
घुन की तरह छुपी छुपी,
अन्दर से खा रही।।
है कौन जिम्मेदार ??
यह किसकी हार है..
दिनकर के सामने,
तम……… .।।
भर रहा हुंकार है..
सर्वाधिकार सुरक्षित
कवि ✍️✍️
शिव शंकर झा “शिव”
12.06.2025 01.52 अपराह्न(460)