शायरी दिल से
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इंसान खो रहा है यहाँ रोज़ रोज़ रोज़
है जातियों का ज़ोर शोर रोज़ रोज़ रोज़
कोई समझ रहा है बस मैं हूँ बादशाह
होकर नशे में झूमता है रोज़ रोज़ रोज़
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इंसान का चेहरा लिए कुछ भेड़िये यहाँ
चुपके से घुल मिल रहे कुछ भेड़िए यहाँ
जिनमें तमीज नाम की है चीज़ भी नहीं
मुखिये बने हुए हैं कुछ भेड़िए यहाँ
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गुरूर में वो इतना बन ठन के चल रहा है
कंधे उठा उठा कर वो तन के चल रहा है
वह जानता तो है सब अपनी खामियां
लेकिन नशे में हैं बन बन के चल रहा है
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पूजा अज़ान प्रार्थना सब एक ही तो हैं
इंसान हाड़ मांस के सब एक ही तो हैं
भर करके ज़हर जेब में कोई है घूमता
उसको ख़बर ये दो सब एक ही तो हैं
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सर्वाधिकार सुरक्षित
कवि-शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक
२९.०६.२०२५ ०३.५८ अपराह्न (४६१)