ग़ज़ल-वक़्त✍️🌹🌹✍️



ग़ज़ल 
वक़्त

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रोज़  रोज़  रोज़ वक़्त  सिखाता है 
आईना रोज़ रोज़ रोज़  दिखाता है

समझो तो सही इशारे उसके “शिव”  
सलीके   से  तरीके  से  बताता  है 

छलक    न   जाएं   यूहीं  अश्क  तिरे 
हकीक़त से वक़्त ही रूबरू कराता है 

वक़्त  है  वक़्त  के  गुलाम  हम सब 
कभी   ऊपर  कभी  नीचे  बिठाता है 

चलता  चल  राह तू ए-राही नादान 
चराग  जल करके रोशनी लुटाता है 

तू  इक बार झाँक तो सही अंदर अपने 
ख़ुद से ख़ुद ही ख़ुद को क्यों छुपाता है 

मुक़ाम  भी  पाएगा और शौहरत भी तू 
चलता चल चुपचाप क्यों लड़खड़ाता है 

शिकायत क्यों अदावत भी क्यों करनी 
वक़्त  ही गिराता है वक़्त ही उठाता है 

हैं   कुछ एक   बहुत थोड़े से   मुट्ठी भर 
आज  भी  उनमें  इंसान  नज़र आता है 

बहुत  दिन  नहीं रहते अच्छे और बुरे दिन 
दिन के बाद रात फिर दिन ज़रुर आता है 

शिकायतों का पुलिंदा हर एक बाँधे है यहाँ 
खामियों का खामियाज़ा उम्र भर चुकाता है

सर्वाधिकार सुरक्षित 
कवि-शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक 
११.०७.२०२५ ०६.२९ पूर्वाह्न (४६२)


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